मंगलवार, 27 जुलाई 2010

शबे-बारात क्या है? शबे- बारात की हकीकत?? What Is Shabe-Baarat?? Reality Of Shabe-Baaraat?? Revised

आज शबे-बारात है..यानी पन्द्रह शअबान आज पुरे हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में बडे ज़ोर शोर से शबे-बारात मनायी जायेगी। ये त्योहार अधिकतर मुसलमान बहुत धुम-धाम से मनाते है। इस त्योहार को कुछ हिन्दु शिव की बारात से मिलाते हैं पढें सुरेश चिपलूनकर द्वारा लिखा गया ये लेख।




ये लेख मैनें पिछले साल लिखा और छापा था आज इसको शबे-बारात के मौके पर दुबारा छाप रहा हूं ताकि पिछ्ले साल जिन लोगों ने इसे ना पढा हो वो भी इसे पढ लें।

"शबे-बारात की हकीकत"
 "पन्द्र्ह शअबान की हकीकत"

 (याद रहे बिदअत गुनाहे कबीरा (सबसे बडा गुनाह) है। बिदअत से शैतान खुश होता है और अल्लाह की नाराज़गी हासिल होती है। बिदअत का रास्ता जहन्नुम की तरफ़ जाता है। लिहाज़ा तमाम मुसलमानों को बिदआत से बचना चाहिये।)

१) पन्द्र्ह शाबान को लोग "शबे-बारात" मान कर जगह-जगह, चौराहों, गली-कूचों में मजलिसें जमातें और झूठी रिवायात ब्यान करके पन्द्र्ह शअबान की बडी अहमियत और फ़ज़ीलत बताते हैं।

२) मस्जिदों, खानकाहों वगैरा में जमा होकर या आमतौर से सलातुल उमरी सौ रकआत (उमरी सौ रकआत), नमाज़ सलाते रगाइब (रगाइब की नमाज़), सलातुल अलफ़िआ (हज़ारी नमाज़) सलते गोसिया (शेख अब्दुल कादिर जिलानी रह०) के नाम की नमाज़ अदा करते हैं।

३) पन्द्रह शअबान की रात को "ईदुल अम्वात" (मुर्दों की ईद) समझ कर मुर्दों की रुहों का ज़मीन पर आने का इन्तिज़ार करते हैं।



४) शबे-बारात के दिन मकानों की सफ़ाई, बर्तनों की धुलाई, नये-नये कपडों को पहनते हैं, औरतें तरह-तरह के पकवान मसलन हलवा, पूडी, मसूर की दाल पकाती और नगमें गा-गा कर रात भर जागती हैं।

५) नियाज़ फ़ातिहा, कुरआन ख्वानी (कुरआन पढना), मज़ारों की धुलाई, कब्रों पर फ़ूल चढाना, गुलगुलों से मस्जिदों की ताकों को भरना, ये सारी बिदअतें व खुराफ़ातें पन्द्र्ह शअबान को आज का मोमिन करता है जिसका दावा था कि....
"तौहिद की अमानत सीनों में  है हमारें
आसां नहीं मिटाना नामो निशां हमारा"

           पन्द्र्ह शअबान के रोज़े से अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने मना फ़रमाया है। हदीस शरीफ़ में है  "जब निस्फ़ (आधा) शअबान हो तो रोज़े न रखों।" (अबूदाऊद, तिर्मिज़ी) निस्फ़ शअबान १५ तारीख से शुरु होगा लिहाज़ा पन्द्रह शअबान का रोज़ा नहीं रखना चाहिये।

           पन्द्र्ह शअबान से पहले चाहे जितने रोज़े रखलें। इसके अलावा चन्द खुराफ़ात जो दीन का नाम लेकर की जाती है मुलाहिज़ा फ़रमायें.......

हलवा :-  कहते है कि जंगे उहुद में अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का दांत टूट गया था तो आपने हलवा खाया था इसलिये आज के दिन हलवा खाना सुन्नत है।

गौर कीजिये!!!!  अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लल्लम दांत का टूटना जिहाद में, और लोगों का हलवा खाना अपने घरों में, जिहाद और जंग की सुन्नत रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम अदा करें और हलवा खाने की सुन्नत हम अदा करें?????????

                                कहा जाता है कि एक बुज़ुर्ग उवैस करनी को जब मालुम हुआ कि आप सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम का दांत-ए-मुबारक शहीद हो गया तो उन्होने अपने दातों को पत्थर से तोड डाला और फ़िर उन्होने हलवा खाया लिहाज़ा ये उनकी सुन्नत है।

                                दांत तोडने का झूठा वाकया उनसे मन्सूब करके नकल कर दिया गया। फ़िर अपने दांतों को तोडना खुदकुशी की तरह है। आप सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने मुंह पर तमाचें मारने से मना फ़रमाया है (इब्ने माज़ा) तो मुंह पर पत्थर मारना कैसे जायज़ होगा???

                            कहा जाता है कि जिसका अज़ीज़ इस साल मर गया हो तो "अरफ़ा" करे यानी शबे-बारात से एक रोज़ पहले हलवा पकाकर नियाज़ फ़ातिहा दिला दें इस तरह इसका साल का नया मुर्दा बरसों पुराने मुर्दों में शामिल हो जायेगा। ये बात भी मनगढंत है।


शबे-बारात की हकीकत :- अल्लाह तआला ने कुरआन में फ़रमाया "इन्ना अन्जलनाहो फ़ी लयलतिम मुबारकातिन इन्नाकुन्ना मुन्ज़िरीन फ़ीहा युफ़रकओं कुल्लो अमरीन हकीम"


तर्जुमा :- "बिला शुबह हमने इस (कुरआन) उतारा है एक मुबारक रात में और हम इस किताब के ज़रीये लोगों को डराते हैं, इस रात में तमाम फ़ैसले हिकमत के साथ बांट दिये जाते है।" (मुबारक रात से मुराद शबे-कद्र है जैसा कि दुसरे मुकाम पर सराहत है।)

आयत :- "शहरौ रमज़ानल-लज़ी उनज़िला फ़ीही कुरआना" (सूर-ए-बकर)


तर्जुमा :- "रमज़ान के महीने में कुरआन नाज़िल किया गया।"

आयत :- "इन्ना अन्ज़लनाहो फ़ी लयलतिल कद्र" ( सूर-ए-कद्र)


तर्जुमा :- "हमने यह कुरआन शब-ए-कद्र में नाज़िल फ़रमाया।"

          यह शबे कद्र रमज़ान के आखिरी अशरे की ताक रातों में से ही कोई एक रात होती है। यहां कद्र की इस रात को मुबारक रात करार दिया गया है। इसके मुबारक होने में क्या शुबह हो सकता है??  कि एक तो इसमे कुरआन का नुजुल (नाज़िल) हुआ, दूसरें इसमें फ़रिश्तों और हज़रत जिब्राईल अलैहिस्सलाम का नुजूल (ज़मीन पर आते है) होता है। तीसरे इसमें सारे साल में होने वाले वाकियात का फ़ैसला किया जाता है।


         "सूर-ए-दोखान" की आयत में लैलते मुबारका से शअबान की पन्द्र्हवी रात मुराद लेना सही नहीं है क्यौंकि कुरआन की दुसरी आयत से उसका नुजूल शबे-कद्र में साबित हैं लिहाज़ा नुजूल की रात और फ़ैसले की रात रमज़ान के महीने के अलावा किसी दूसरे महीने में नही हो सकता।
 
          शबे-बारात की को लेकर जितनी भी रिवायात (बातें) आती हैं जिनमें उसकी फ़ज़ीलत का ब्यान है या उनमें इसे फ़ैसले की रात कहा गया है तो यह सब रिवायात ज़ईफ़ हैं यह कुरआन की आयात का मुकाबला नही कर सकतीं हैं।
 
 
              "जन्नतुल बकीं में प्यारे नबी सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम का तशरीफ़ ले जाना"

हज़रत आयशा रज़ि अल्लाहो अन्हा का इरशाद इमाम बुखारी रह० ने बुखारी शरीफ़ में नकल फ़रमाया है --- "प्यारे नबी सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम जब भी मेरी बारी के दिन तशरीफ़ लाते तो जन्नत-उल-बकी ज़रुर जाते और मुर्दों के लिये अल्लाह तआला से दुआ करते।" (मुस्लिम शरीफ़ पेज ३१३ जिल्द ३)  

और वो रिवायत जिसे इमाम तिर्मिज़ी रह० ने रिवायत किया है जिसमें कहा गया है कि अल्लाह तआला बनू कल्ब की बकरियों से ज़्यादा अपने गुनाहगार बन्दों को माफ़ करता है यह रिवायत सख्त ज़ईफ़ और मुनकता (बहुत पुरानी और कमज़ोर जिसका कोई और सुबूत नहीं हो) है। 


        इस रिवायत को अल्लामा अनवर शाह कश्मीरी रह० शेखुल हदीस दारुल उलूम देवबन्द ने ज़ईफ़ यानी (पुरानी और कमज़ोर जिसका कोई और सुबूत नहीं हो) कहा है।
 
       अल्लाह तआला पन्द्र्ह शअबान ही को नहीं बल्कि रोज़ाना दो तिहाई रात गुज़रने के बाद आसमाने दुनिया पर नुजूल (आता है) फ़रमाता है और कहता है :-  है कोई मुझसे दुआ करने वाला कि मैं उसकी दुआ कुबूल करुं, कोई मुझसे मांगने वाला है कि मैं उसे दूं, कोई मुझसे बख्शिश तलब करने वाला है कि मैं उसे बख्श दूं। (बुखारी पेज १५३ जिल्द १)
 
        मालूम हुआ कि हज़रत सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम जन्नतुल बकी जब भी हज़रत आयशा रजि० के यहां बारी होती तशरीफ़ ले जाते और अहले कब्रिस्तान के लिये दुआऎ मगफ़िरत करते। यह कोई पन्द्र्ह शअबान ही के लिये खास न था जैसा कि आजकल के बाज़ मुसलमान समझते है और ये भी मालुम हुआ कि अल्लाह तआला पन्द्रह शअबान ही को नहीं बल्कि रोज़ाना ही तिहाई रात गुज़रने के बाद आसमाने दुनिया पर तशरीफ़ लाता है और दुआ करने वाले की दुआ कुबूल करता है और बख्शिश तलब करने वाले की बख्शिश करता है।
पन्द्र्ह शअबान की रात में मस्जिदों, मकानों में चिरागां करना (चिराग जलाना), दीवारों, दरवाज़ों पर चिराग और मोमबत्तियां रखना और पटाखे चलाना और आतिशबाज़ी करना ये दिवाली की नकल है इसका किसी भी हदीस में कोई भी असल सुबूत नही है। यह आतिश परस्तों के तौर-तरीकों की नकल की एक झलक है जिसको आतिशपरस्तों ने अवाम को धोखें में मुब्तला करके राइज़ (राज़ी) किया था। काश मुसलमान इसकी हकीकत से वाकिफ़ होते और इससे बचते।
 
अल्लाह तआला हमें इन गलत रस्मों-रिवाजो से हटाकर हम सबको कुरआन और हदीस को पढकर, सुनकर, उसको समझने की और उस पर अमल करने की तौफ़िक अता फ़र्मायें।

आमीन,
सुम्मा आमीन

 
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2 टिप्‍पणियां:

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