शुक्रवार, 29 मई 2009

कब्रों की ज़ियारत किस लिये?

मुझ से यह सवाल हमारे एक भाई ने ई-मेल से पूछा था तो मै उस्का जवाब यहा दे रहा हू ।

सवाल :- कब्रों की ज़ियारत मज़ारों से वसीला लेना और (चढावे के तौर पर) वहां माल और दुंबे आदि ले जाने का क्या हुक्म है? जैसा कि लोग सय्यद अल-बदवी (सुडान में), हज़रत हुसैन बिन अली रज़ि ॒ (इराक में), और हज़रत जैनब रज़ि ॒ (मिस्र) कि कब्रों पर करते हैं । आप जवाब दें, अल्लाह आप के इल्म में बरकत दे । आमीन

जवाब :- कब्रों के ज़ियारत की दो किस्में हैं । पहली किस्म वह है जो कब्र वालों पर रहम व मेह्र्बानी करने, उनके लिये दुआ करने, मौत को याद रखने और आखिरत कि तय्यारी के लिये कि जाये । यह ज़ियारत जाइज़ है और ऐसी ज़ियारत की आवश्यक्ता भी हैं । क्यौंकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहिंं वसल्लम का फ़र्मान है ।

"कब्रों की ज़ियारत किया करो, इस लिये कि वह तुम्हें आखिरत की याद दिलाती हैं"








आप सल्लल्लाहु अलैहिंं वसल्लम स्वंय भी उनकी ज़ियारत किया करते थे, और इसी प्रकार आपके सहाबा भी । ज़ियारत कि यह किस्म केवल मर्दों के लिये खास है, महिलाओं के लिये नहीं । जहां तक औरतों के लिये ज़ियारत का सम्बंध है, तो उन्के लिये कब्रों कि ज़ियारत जायज़ नहीं, बल्कि उन्हे इस काम से मना करना अनिवार्य है क्यौंकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहिंं वसल्लम ने कब्रों की ज़ियारत करने वाली औरतों पर लानत फ़रमायी है, और इसलिये भी की कब्रों की ज़ियारत के समय उन्के सब्र खो देने और रोने चिल्लाने की वजह से फ़ितने के गालिब आने की संभावना है। इसी प्रकार उन्का कब्र्स्तान तक जनाज़ों के पीछे जाना भी ना-जायज़ है। क्यौन्कि सहीह हदीस में ह्ज़रत उम्मे अतिय्या रज़िंं से रिवायत है कि "हमें जनाज़ों के पीछे चलने से मना किया है और यह (साथ जाना) हम पर वाजिब भी तो नही किया गया"

इससे साबित हुअ कि इन औरतों की वजह से और उनके अपने लिये फितनों के खडा होने और उन्के अन्दर सब्र कि कमी की शंका के कारण उन्हे जनाज़ों के पिछे (साथ-साथ) कब्रस्तान तक जाने से मना किया गया हैं। और इस्के हराम होने की अस्ल बुनियाद अल्लाह का यह फ़र्मान है : रसूल सल्लल्लाहु अलैहिंं वसल्लम (शरीअत के मामले में) तुम्हें जो कुछ दें वह ले लो (उस पर अमल करो) और जिस्से वह तुम्हे मना करें उस्से तुम रुक जाओ" (सुर: ह्श्र ५९)

अल्बत्ता जनाज़ा की नमाज़ के अदा करने मे मर्दो और औरतों, सब का शामिल होना जाय्ज़ है जैसा कि सहीह हदीसों में रसूल सल्लल्लाहु अलैहिंं वसल्लम और सहाबा रज़िंं से यह साबित है, उम्मे अतिय्या के इस कौल से कि "हम पर जनाज़ों के पीछे चलना वाजिब भी तो नहीं किय़ा गया" औरतों का जनाज़ों के पीछे आने का ज्वाज़ बिल्कुल नहीं निकलतां।

ज़ियारत कि दूसरी किस्म बिदअत है। और वह यह है कि ज़ियारत करने वाला कब्र वालों से अपने लिये दुआ और मदद चाहे, या उन्के नाम की नज़र व नियाज़ दे। तो यह निश्चित तौर पर मना है और सब से बडा शिर्क है। इन इबाद्तों से मिल्ते जुल्ते काम यह भी है की उन कब्र वालों के पास जा कर दुआ मागें, नमाज़ पढें, या तिलावत करें। यह बिदअत है जो किसी प्रकार भी जायज़ नही है। यह सारी बातें शिर्क के सूत्रों में से हैं। ह्कीकत में इस विषय से मुतअल्लिक तीन किस्में बन्ती हैं।

पहली किस्म :- जायज़ और वह यह है की कब्रों की ज़ियारत आखिरत को याद करने और कब्र वालों के हक मे दुआ करने के लिये हो।

दूसरी किस्म :- बिदअत और वह यह है कि कब्रों के पास (खैर व बर्कत के लिये) तिलावत करना। तो यह बिदअत और शिर्क पर ले जाने वाले रास्तों मे से है।

तीसरी किस्म :- शिर्क-अक्बर । और वह यह है की कोई व्यक्ति कब्र कि ज़ियारत करे ताकि कब्र वाले की खुशनुदी हासिल करने के लिये कब्र पर जान्वर ज़िबह करे और उस्के ज़रिया से कब्र वाले (मुर्द) से तक्र्रुब (नज़दीकी) हासिल करना मकसूद हो, य अल्लाह को छोड्कर उस कब्र वाले मुर्दे से दुआ मागें, या उस्से मदद तलब करें। वह मदद चाहे मुसीबत से छुट्कारा पाने के लिये हो, या दुश्मन के मुकाब्ले मे जीत के लिये हो। इन प्रकार कि निय्तों के साथ कब्रों कि ज़ियारत करने से बचना बहुत ही अनिवार्य है।

और इस्मे भी कोई अन्तर नहीं कि जिस्को (मदद या दुआ वगैरह) पुकारा जा रहा है, वह नबी हो या कोई नेक और दीन-दार आदमी हो, या इन्के अलावा कोई और हो। चाहे ऐसा करने वाला रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम कि कब्र के पास आकर यह कार्य करें या किसी और की कब्र पर जाक्र सब बराबर है जैसा की जाहिल लोग करते हैं, बस अल्लाह ही मदद करने वाला है।

6 टिप्‍पणियां:

  1. काशिफ भाई अपना जीमेल ईमेल पता दें

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  2. kashif bhai, umda.....bahut hi umda jankari aapne di,aapka dili shuqriya ...aisee jaankariyan bahut kaam aati hain aur ravayat ki raah aasan karti hain kyonki logon k shubah door hote hain
    BADHAI

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  3. बहुत उम्दा पोस्ट है............... बहुत खरी और साफ़ बात लिखते है आप

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  4. सही कहा आपने...मैने भी बहुत से मुस्लमानों से सुना है की इस्लाम में कब्रो की ज़ियारत नही है... आप मरहुम के लिये दुआ कर सकते हो लेकिन उससे अपने लिये कुछ नही मांग सकते हो

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  5. Salam Bhai sahb
    aap jo bhi sawal ka jawab dete he usme aap quran aur hadish ka hawala dete he achi baat he, aapse 1 gujarish he jis tarah aap quran ki surah aur ayat ka no. dete he ese hi aap hadish ka bhi pura hawala de, wo isliye ki kisi se baat karo to kahte he ki ye hadish to manshukh ho gyee he, ye hadish to zayeef he..aur kahte he iska koi hawala nahi he.

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